Friday, 1 June 2012

Bhagvad Gita -Dharmkshetre Kurukshetre - धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे - 1 - Prof. Basant


                  
 Dharmkshetre Kurukshetre -  धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे
         A scientific  text  based on percept and philosophy.
धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चेव किमकुर्वत संजय।1।-srimadbhavadgita
Dharmkshetre Kurukshetre Smveta Yuyutsvha
Mamka Pandwashrchev Kimkurwat Sanjay 1.
आस लिए रण की जमा, धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र
कर्म किया मम पाण्डु पुत्र क्या, हे संजय तू बोल।। 1।। - Basanteshwari
Āsa li'ē ra
a kī jamā, dharma kētra Kurukētra
Karma kiyā mama Pā
ṇḍu putra kyā, hē San̄jaya tū bōla.. 1..

How the battle field of Kurukshetra, can be the field of religion?
What is your argument.?
Any  battle field Whether it's Kurukshetra, can not  be the field of religion? Religion has nothing to do with land either used for battle or agriculture.
Text -
Full of distraught infatuation  of his son king Dhritrashtra ask to  Sanjay  - Hey Sanjay, assembled in the battle field of Kurukshetra where different worriers (jiva) having different nature were eager to fight, what did  the Pandvas and my son do?
Dharma means to hold or who have been holding. Which is said to hold that is his soul and held that is the nature. Here the meaning of dharma is nature of bonded soul and field is for huaman body. Bhagavad Gita confirms that in other contexts also. As ‘swdharme nidhnam shreyha par dharma byavhvaha', to be in their nature, as well as  dying  is source of happiness and exemption of calimity.. The word religion in the holy scriptures  Bhagavad Gita is extremely important.
Lord Krishna told that a common man can lead a peaceful as well as higher life by practicing self religion ie by leading his life in his own nature. 
Maharishi Vyas was a theologian. His view of religion means the soul and  the body is field. Taking this point of view king Dhritrashtra full of distraught infatuation of his son, ask to  Sanjay  - Hey Sanjay, in the battle field of Kurukshetra in presence of lord Krishna, where number of worriers assembled to fight, what did  the Pandvas and my son do?
Mr. Lord said the sermons at the end of the Gita itself as religion dialogue. Which holds that is religion ie where God is present in the body, it must have been in thinking of Brahmrishi’s diameterBy this the  use of the word religion here is for lord Sri Krishna Chandra, who holds the universe and Dhritrashtra sense of individual nature of soul (which is held) is taken in to  cognizance." Dharma Snsthapnarthayha ', is also confirmed the diameter.

(Note - the ground of battle can not be a ground of religion.)

Tuesday, 7 February 2012

गीता का बुद्धि तत्त्व और बुद्धि योग - प्रो. बसन्त जोशी


              
                            यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्.

                            लोचनाभ्य विहीनस्य दर्पणः किम् करिष्यति.


चाणक्य के वचन हैं कि जिसके पास बुद्धि नहीं हैकोई भी शास्त्र उसका कोई भला नहीं कर सकते हैं. नेत्रहीन व्यक्ति का दर्पण क्या कर सकता है?

बुद्धि किसी भी प्राणी को दिया परमात्मा का सबसे बड़ा वरदान है. इस बुद्धि  के कारण ही मनुष्य अन्य जीवों से श्रेष्ठ है और बुद्धि ही परमात्मा को पाने का एक मात्र अवलम्ब है. 
गयात्री मन्त्र में भी बुद्धि के लिए परमात्मा से प्रार्थना की गयी है.

धियो : बुद्धि को

य: : जो

न: : हमारी

प्रचोदयात : शुभ कार्यों में प्रेरित करे

बुद्धि योग अत्यन्त श्रेष्ठ है। बुद्धि योग का तात्पर्य है निरन्तर बुद्धि से आत्म स्थित रहना। इसे ही परमात्मा से जुड़े रहना कहते हैं। बुद्धि योग का आश्रय लेकर ही समस्त कर्म करना है।
बुद्धि से जो आत्मा में स्थित है उसके लिए पाप और पुण्य निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि वह अकर्ता हो जाता है। यही समता योग है। इस बुद्धि योग द्वारा ही कर्म बन्धन से छूटा जा सकता है। बुद्धि ही ऐसा माध्यम है जिससे अनासक्त होकर शरीर से कर्म किये जा सकते।
ज्ञानवान ही बुद्धि द्वारा कर्म फल को त्याग करने में सक्षम होते हैं। अनासक्त होते ही चित्त की उद्विग्नता समाप्त हो जाती है और मन शान्त हो जाता है। इसलिए बुद्धियोगी जन्म बन्धन सेमुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त करते हैं।
बुद्धि द्वारा ही मनुष्य को यह ज्ञात हो पता है कि मोह ही संसार है और बुद्धि से ही मोह के त्यागने का रास्ता अथवा साधन भी प्राप्त होता है.
वेद और उपनिषद के भिन्न भिन्न सिद्धान्तों से उपलब्ध बुद्धि द्वारा समाधि में स्थित होने पर मनुष्य समता योग को प्राप्त होता है अर्थात संसार में प्रचलित किसी एक अथवा बहुत विधियों का सहारा लेकर निरन्तर साधना करते हुए जब बुद्धि समाधि में अचल और स्थिर हो जाती है तभी आत्मा से योग सिद्ध  होता है.
यह बुद्धि उस समय स्थिर होती हैं जिस समय मनुष्य बुद्धि द्वारा मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, उस समय वह आत्मासे आत्मा में संतुष्ट रहता है और स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।
बुद्धि के स्थिर हो जाने पर  मनुष्य का मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता और सुखों से उसे कोई प्रीति नहीं होती है, दोनो अवस्थाओं में वह निस्पृह रहता है, उसका राग, क्रोध, भय समाप्त हो जाता है,वह अनासक्त हो जाता है और वह  इस संसार में उदासीन होकर रहता है, वह सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है, शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है.
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट कर अन्दर कर लेता है वैसे ही जब मनुष्य बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को सब विषयों से समेट लेता है तब स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।
जिस मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं है वह किसी भी इन्द्रिय को रोककर उसके विषय को हठ पूर्वक ग्रहण नहीं करने से विषय निवृत्त हो सकता है परन्तु उस विषय में आसक्ति निवृत्त नहीं होती है. स्थिर बुद्धि मनुष्य इन्द्रियों से कार्य करते हुए भी विषयों को ग्रहण नहीं करता है उस पुरुष के विषय भी सीमित रूप से ही निवृत्त हो पाते हैं परन्तु स्थित प्रज्ञ पुरुष के परम आत्मा में स्थित होने पर ही आसक्ति पूर्ण रूप से निवृत्त होती है।क्योंकि पुरुष में आसक्ति इतनी प्रबल है कि यह आसक्ति नाश न होने के कारण, चंचल स्वभाव वाली इन्द्रियां, रात दिन प्रयत्न करने वाले बुद्धिमान साधक के मन को अपने प्रभाव से बल पूर्वक हर लेती है अर्थात यत्नशील बुद्धिमान पुरुष भी इन्द्रियों के वेग के सामने लाचार हो जाता है।अतः जो मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके आत्मतत्व की साधना में स्थित रहता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की बुद्धि उन विषयों में आसक्त हो जाती है। यदि किसी एक इन्द्रिय विषय का थोड़ा भी चिन्तन हो तो निरन्तर अभ्यासी पुरुष भी उस विषय की ओर बहने लगता है। सकामी पुरुषों की अनेक इच्छायें और उनकी आसक्ति से उत्पन्न संवेग का अनुमान लगाया जा सकता है। आसक्ति से बुद्धि में काम उत्पन्न होता है, कामना पूर्ति में यदि बाधा होती है तो क्रोध उत्पन्न होता है.
क्रोध से सम्मोह पैदा होता है अर्थात बुद्धि सम्मोहित होकर अविचार उत्पन्न कर देती है। सम्मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है। स्मृति नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और जिसकी बुद्धि का नाश हो जाय वह अपनी स्वरुप स्थिति को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता और जिस स्थिति को उसने प्राप्त भी किया है उससे गिर जाता है।
बुद्धि के द्वारा जिस पुरुष का मन उसके वश में आ चुका है तथा बुद्धि से सभी इन्द्रियां जिसने  वश में कर ली हैं, उसे न किसी से राग होता है न किसी से द्वेष अर्थात जिसकी आसक्ति का नाश समूल रुप से हो गया है ऐसा पुरुष संसार के समस्त विषयों को राजा जनक के समान विदेह होकर भोगता हुआ भी आत्मानन्द को प्राप्त होता है। उसका अन्तःकरण निरन्तर प्रसन्न रहता है।उसका चित्त निर्मल हो जाता है, अन्तःकरण स्वतः प्रफुल्लित रहता है ,सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं और उस प्रसन्न चित योगी की बुद्धि शीघ्र  ही आत्म स्थित हो जाती है और आत्म स्वरूप में भलीभांति स्थिर हो जाती है।
जो मनुष्य इन्द्रियों का दास है अर्थात जो कामनाओं का दास है और जिसका मन उसके वश में नहीं है अर्थात नित नई कामनाएं करता है, उस मनुष्य की बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती वह भटकती रहती है। एक बुद्धि न होने से अयुक्त मनुष्य के अन्तः करण में आत्म भावना भी नहीं होती। आत्म भाव का अभाव होने से मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती । कबीर कहते हैं शान्ति भई जब गोविन्द जान्याऔर जिसे शान्ति नहीं है, वहाँ आनन्द कैसे हो सकता है।
विषयों में विचरती हुयी इन्द्रियों के साथ अथवा किसी एक इन्द्री के साथ मन रहता है, वह एक इन्द्री पुरुष की बुद्धि का हरण उसी प्रकार कर लेती है जैसे पानी में नाव का वायु हरण कर लेती है अर्थात साधक पथ भ्रष्ट हो जाता है। नाव विपरीत दिशा की ओर वायु वेग से बहने लगती है, उसी प्रकार साधक की बुद्धि विपरीत हो जाती है।
अतः इन्द्रियों को वश में करना सबसे ज्यादा आवश्यक है। इन्द्रियों को वश में करने के लिए महर्षि पातंजलि ने अष्टांगयोग बताया है। जिस साधक की इन्द्रियां सब प्रकार से वश में हैं उसकी बुद्धि स्थिर है, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
जब संसार के समस्त प्राणी सोते हैं तब स्थितप्रज्ञ योगी आत्म ज्ञान में जागता है। सुसुप्ति में भी वह योगी आत्म रस में निरन्तर मगन रहता है। जब इस संसार के समस्त प्राणी जागते हैं अर्थात विषय व इद्रियों के वश में हुए संसार के कर्म करते हैं, स्थितप्रज्ञ मुनि के लिए वह समय रात्रि के समान है अर्थात वह संसार से अनासक्त हुआ कर्मों में विचरता है।
नदी नालों का समस्त पानी समुद्र में समा जाता है फिर भी समुद्र अचल रहता है, उसमें बाढ़ नहीं आती, वह जस का तस बना रहता है। इसी प्रकार स्थित प्रज्ञ पुरुष में भी संसार के समस्त कर्म, समस्त भोग समा जाते हैं, वह परम शान्ति, परम आनन्द को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति भोगों को चाहने वाला है उसे शान्ति नहीं प्राप्त होती है क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने से उसका चित्त उद्विग्न रहता है
आत्म स्थित ही ब्राह्मी स्थिति है। जब बुद्धि और आत्मा एक हो जाती है तब यह ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। जो भी योगी इस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त हो जाता है, उसे सांसारिक और परमार्थिक मोह व्याप्त नहीं होते और अन्त में आत्म स्थित हुआ वह पुरुष आत्मा को ही प्राप्त होता है। इसे ही ब्रह्म निर्वाण कहते हैं।
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