Saturday, 3 December 2011

भगवदगीता के उत्तरायण दक्षिणायन मार्ग - भाष्यकारों का अवैज्ञानिक, अतार्किक गीता भाष्य- Prof.Basant



भगवद्गीता के उत्तरायण दक्षिणायन मार्ग - भाष्यकारों का अवैज्ञानिक, अतार्किक गीता भाष्य

भगवद्गीता के आठवें अध्याय में मृत्यु के बाद जीव की गति को बताने वाले श्लोक संख्या २४ ,२५ अत्याधिक महत्वपूर्ण हैं. गतानुगतिकता के कारण भगवद्गीता के ज्यादातर भाष्यकारों ने इन श्लोकों का अर्थ व भाष्य लिखते हुए यह भी नहीं सोचा कि वह क्या लिख रहे हैं. यहाँ तक कि डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी वास्तविकता से परे इन श्लोकों का भाष्य लिख डाला. आप कोई भी भगवद्गीता के श्लोक संख्या २४ ,२५ का अर्थ एवम भाष्य पढने की कृपा करें और आप  स्वयं जान जायंगेकि समझ से परे  क्या अवैज्ञानिक, अतार्किक लिखा है. यदि पढ़कर आपकी समझ में आ जाये तो इस अबोध का भी मार्गदर्शन करें.  भगवदगीता की सीधी बात को असहज कर दिया है. स्वामी प्रभुपादजी ने तो इन श्लोकों का नितांत समझ से परे अवैज्ञानिक, कपोलकल्पित  भाष्य लिख डाला.  यथार्थ गीता में स्वामी अड़गड़ानन्द जी ने विषय को छुआ तो है पर विषय क्लिष्ट हो गया है. सीधा, सरलता, स्पष्टता और समझ की कमी रह गयी है. केवल ज्ञानेश्वरी में इसे विस्तार से बोधिसत्वों के लिए  सुस्पष्ट किया गया है परन्तु जनसामान्य को और अधिक सरलता चाहिए अतः सरल रूप  में श्लोक संख्या २४ ,२५ का भाष्य आपके चिन्तन के लिए प्रस्तुत है.

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥

जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय, अग्निमय, शुक्ल  पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय ( ज्ञानमय ) और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय ( अत्यन्त ज्ञानमय) हो जाते हैं. ऐसे जिन पुरुषों को आत्मज्ञान हो जाता है (ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है) वह आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं। यहाँ बोध की भिन्न भिन्न मात्रा को प्रकाश की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है कि बोध प्राप्त योगियों की स्थिति भी प्रकाश की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है

धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं। यहाँ अज्ञान की मात्रा को अन्धकार की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनमें अज्ञान की स्थिति अन्धकार की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है तदनुसार लौट कर उन्हें कर्म फल भोगने पड़ते हैं.

अगले श्लो़क में कहते हैं-
इस जगत में दो प्रकार के मार्ग हैं 1 - शुक्ल  मार्ग अर्थात ज्ञान मार्ग जहाँ ज्ञानी देह छोड़ने से पहले आत्म स्थित हो जाता है।
2 - कृष्ण मार्ग जहाँ सकामी योगी व पुरुष शुभ और अशुभ कर्मों के कारण अज्ञान के मार्ग में जाता है तथा विशुद्धज्ञान  अंश प्राप्त होने पर कर्मानुसार पुनः इस संसार में जन्म लेता है।

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Friday, 25 November 2011

भगवदगीता और आत्मा - सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है-Prof.Basant


भगवदगीता और आत्मा - सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है

       पार्थ सूर्य ब्रह्माण्ड को, ज्योर्तिमय कर देत
       वैसे ही यह आत्मा, क्षेत्र ज्योति भर देत ।। 33-13।।

जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है, जीवन है आदि उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है

सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है
यह आत्मा सदा नाश रहित है
आत्मा ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है
सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व हो
इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है
जीवात्मा इस देह में आत्मा का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है
इस जीवात्मा के देह मरते रहते हैं
जब देह मरता है तो समझा जाता है सब कुछ नष्ट हो गया परन्तु ऐसा नहीं होता हैइसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, जो इसे मारने वाला और मरणधर्मा मानता है, वह दोनों नहीं जानते हैं
यह आत्मा किसी को मारता है, मरता है
आत्मा अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अतः किसी को नहीं मारता
आत्मा नित्य अविनाशी है
आत्मा किसी भी काल में नहीं मरता है
इस आत्मा का जन्म है न मरण है
यह आत्मा जन्म लेता है किसी को जन्म देता है
आत्मा हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है
 इसे कोई नहीं मार सकता
केवल इसके देह नष्ट होते हैं
आत्मा को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है.
जीवात्मा के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है.
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं.
आत्मा को आग में जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा को जल गीला नहीं कर सकता.
आत्मा को वायु सुखा नहीं सकती
आत्मा  निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है
आत्मा को छेदा नहीं जा सकता.
आत्मा को जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा को गीला नहीं किया जा सकता.
आत्मा को सुखाया नहीं जा सकता.
यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है
यह आत्मा व्यक्त नहीं किया जा सकता है.
आत्मा अनुभूति का विषय है
आत्मा का चिन्तन नहीं किया जा सकता. आत्मा बुद्धि से परे है
आत्मा विकार रहित है.
आत्मा सदा  अक्रिय है
इस देह में आत्मा क्रियाशील और मरता जन्म लेता  दिखायी देता है.
आत्मतत्त्व एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह सब कुछ करता दिखायी  देता है
आत्मा निराकार है,
आत्मा अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए  दिखायी देता है
आत्मा इस देह में अवध्य है.
आत्मा को कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता.
आत्मा मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है
आत्मा ही विश्वात्मा है.इस शरीर में आत्मा ही अधिदैव और अधियज्ञ दोनों रूप से प्रतिष्ठित हैंअधिदैव के रूप में वह कर्ता भोक्ता है तो अधियज्ञ के रूप में दृष्टा है
आत्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है.
आत्म शक्ति से ही यह सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है श्री ब्रह्मा और श्री हरि विष्णु आत्म शक्ति से ही उत्पत्ति एवं जगत पालन का कार्य करते हैं
आत्मा ही इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा से ही जन्मती है, आत्मा में ही स्थित रहती है और आत्मा में ही ही लय हो जाती हैआत्मा ही सृष्टि का बीज है और सृष्टि का विस्तार भी आत्मा ही है और यह जगत आत्मा का ही रूप है
आत्मा की ज्ञान शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती हैउससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैंआत्मा सदा अकर्ता अक्रिय है

सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा हैअसत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहींजब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैंज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता हैउस समय दृष्टा रहता है   दृश्यकेवल आत्मतत्व जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है




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