भगवद्गीता के उत्तरायण दक्षिणायन मार्ग - भाष्यकारों का अवैज्ञानिक, अतार्किक गीता भाष्य
भगवद्गीता के आठवें अध्याय में मृत्यु के बाद जीव की गति को बताने वाले श्लोक संख्या २४ ,२५ अत्याधिक महत्वपूर्ण हैं. गतानुगतिकता के कारण भगवद्गीता के ज्यादातर भाष्यकारों ने इन श्लोकों का अर्थ व भाष्य लिखते हुए यह भी नहीं सोचा कि वह क्या लिख रहे हैं. यहाँ तक कि डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी वास्तविकता से परे इन श्लोकों का भाष्य लिख डाला. आप कोई भी भगवद्गीता के श्लोक संख्या २४ ,२५ का अर्थ एवम भाष्य पढने की कृपा करें और आप स्वयं जान जायंगेकि समझ से परे क्या अवैज्ञानिक, अतार्किक लिखा है. यदि पढ़कर आपकी समझ में आ जाये तो इस अबोध का भी मार्गदर्शन करें. भगवदगीता की सीधी बात को असहज कर दिया है. स्वामी प्रभुपादजी ने तो इन श्लोकों का नितांत समझ से परे अवैज्ञानिक, कपोलकल्पित भाष्य लिख डाला. यथार्थ गीता में स्वामी अड़गड़ानन्द जी ने विषय को छुआ तो है पर विषय क्लिष्ट हो गया है. सीधा, सरलता, स्पष्टता और समझ की कमी रह गयी है. केवल ज्ञानेश्वरी में इसे विस्तार से बोधिसत्वों के लिए सुस्पष्ट किया गया है परन्तु जनसामान्य को और अधिक सरलता चाहिए अतः सरल रूप में श्लोक संख्या २४ ,२५ का भाष्य आपके चिन्तन के लिए प्रस्तुत है.
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय, अग्निमय, शुक्ल पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय ( ज्ञानमय ) और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय ( अत्यन्त ज्ञानमय) हो जाते हैं. ऐसे जिन पुरुषों को आत्मज्ञान हो जाता है (ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है) वह आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं। यहाँ बोध की भिन्न भिन्न मात्रा को प्रकाश की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है कि बोध प्राप्त योगियों की स्थिति भी प्रकाश की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है।
धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं। यहाँ अज्ञान की मात्रा को अन्धकार की भिन्न भिन्न की मात्रा से बताया गया है साथ ही यह भी बताया है जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनमें अज्ञान की स्थिति अन्धकार की मात्रा की तरह भिन्न भिन्न होती है तदनुसार लौट कर उन्हें कर्म फल भोगने पड़ते हैं.
अगले श्लो़क में कहते हैं-
इस जगत में दो प्रकार के मार्ग हैं 1 - शुक्ल मार्ग अर्थात ज्ञान मार्ग जहाँ ज्ञानी देह छोड़ने से पहले आत्म स्थित हो जाता है।
2 - कृष्ण मार्ग जहाँ सकामी योगी व पुरुष शुभ और अशुभ कर्मों के कारण अज्ञान के मार्ग में जाता है तथा विशुद्धज्ञान अंश प्राप्त होने पर कर्मानुसार पुनः इस संसार में जन्म लेता है।
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बहुत सरल ढंग से गहरी बात कही है। विषय को समझने के साथ ही स्पष्ट हो गया कि कृष्ण का संदर्भ टीकाकारों के लिए भिन्न उनकी समझ के कारण है।
ReplyDeleteमुझे इस व्याख्या पर विश्वास है परंतु मनुष्य को अगला जन्म उसके कर्मो के अनुसार मिलता है न की प्रकृति की किसी दशा के अनुसार।
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