Saturday, 22 October 2011

क्रोध -आप को गुस्सा आता है तो अजमाइये कुछ नुस्खे. -प्रो बसन्त


            क्रोध प्रबंधन
  क्रोध से बुद्धि का नाश हो जाता है
     अधिक क्रियाशक्ति + अधिक अज्ञान = अधिक क्रोध
आप को गुस्सा आता है, आप गुस्से से परेशान हैं तो अजमाइये कुछ नुस्खे.
1.      नमक कम मात्रा में लें.
2.      तेल घी का प्रयोग कम करें. गाय का घी, मक्खन,सूरजमुखी का तेल बहुत कम मात्रा में ज्यादा गुणकारी है.
3.      भूखे न रहें.उपवास न करें. भूख लगने पर सादा भोजन अथवा फल खायें.
4.      ताजे दही और छांछ का प्रयोग करें.
5.      अपने शरीर का ध्यान रक्खें.
6.      कई बार ठंडा पानी पियें.
7.      सुबह जल्दी उठें.
8.      प्रतिदिन रोज टहलने जाएँ.
9.      कागजी नीबू .सेव ,केला अंगूर आदि रसदार फलों का सेवन करें. पर चीनी और नमक के सेवन से बचें.
10.  दूध सुबह और रात में पियें.
11.  अधिक गरम व ठंडे भोजन से बचें. बार बार गरम किया खाना न खायें.
12.  भीड़ भाड़ वाले स्थानों में जाने से बचें.
13.  रात्रि में ६-७ घंटे सोयें. इससे न अधिक सोयें न कम. दिन में न सोयें. आराम कर सकते है. रात में जागने और दिन में सोने की आदत छोड़े.
14.  सीमा से अधिक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम न करें.

15.  सन्त महापुरुषों का जीवन चरित्र एवम भगवदगीता  को प्रति दिन समझते हुए कम से कम १५-२० मिनट पढ़ें.

16.  शास्त्रीय संगीत सुनें.

17.  अपने अंदर सृजन(creativity) विकसित करें. अपने काम को एन्जॉय करें. स्वाभाविक जीवन से दूर न भागें.
    
18.  ध्यान,प्राणायाम बहुत लाभप्रद है.

19.  सदा चिन्तन करें जो परमात्मा मेरे अंदर है वह दूसरे के अंदर है ,शेष प्रकृति का खेल है. इससे कष्ट सहन करने की क्षमता बढ़ेगी, क्षमा भाव बढ़ेगा, मन में करुणा उत्पन्न होगी.

इन उपायों में आप को जो भी सुविधा जनक लगें को अपनाकर कम अथवा अधिक मात्रा  में आप क्रोध को  नियंत्रित कर सकते हैं और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं.

क्रोध-भगवतगीता ज्ञान –प्रो बसन्त




क्रोध क्या है? यह प्रत्येक प्राणी में होता है.कोई इसे मनोविकार कहता है, कोई इसे सब बुराइयों की कुंजी मानता है, तो अन्य सब अनर्थो की जड़.सभी इससे परेशान हैं पर कोई भी इसे छोड़ नहीं पाता.

भगवद्गीता में श्री भगवान कहते हैं-
क्रोध से सम्मोह पैदा होता है अर्थात बुद्धि सम्मोहित होकर अविचार उत्पन्न कर देती है। सम्मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है। स्मृति नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और जिसकी बुद्धि का नाश हो जाय वह अपनी स्वरूप स्थिति को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता और जिस स्थिति को उसने प्राप्त भी किया है उससे गिर जाता है।
श्री भगवान के वचन हैं रजोगुण से जन्म लिए काम और क्रोध ही मनुष्य को पाप की ओर ले चलते हैं। यह बहुत खाने वाले हैं और कभी तृप्त नहीं होते हैं। यह बड़े पापी हैं तथा आत्मोन्नति के मार्ग में यह प्रबल शत्रु हैं।

क्रोध क्यों होता है?

रजोगुण क्रोध के जन्म के लिए उत्तरदायी है.सृष्टि त्रिगुणात्मक है अतः रजोगुण और क्रोध अपरिहार्य हैं.

रजोगुण क्या है?

यह क्रिया शक्ति है जो किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी है.इस क्रिया शक्ति में जब  तमोगुण –अज्ञान मिल जाता है तो अज्ञान की मात्रा के अनुसार अविवेक का जन्म होता है. अधिक क्रियाशक्ति + अधिक अज्ञान = अधिक क्रोध. क्रियाशक्ति  और अज्ञान की मात्रा कम होने पर क्रोध की मात्रा  कम होती है.इसी प्रकार क्रिया शक्ति अथवा रजोगुण जब विवेक (सतोगुण-ज्ञान )से मिलता है तो ज्ञान की मात्रा  के अनुसार  अनुशासन एवम मर्यादा का जन्म होता है. इसी आधार पर संसार में क्रोध के भिन्न भिन्न परिणाम देखे जा सकते हैं.

रजोगुण के कार्य का तरीका

रजोगुण आसक्ति को जन्म देता है.
पुरुष में आसक्ति इतनी प्रबल  होती है कि यह आसक्ति नाश  न होने के कारण चंचल स्वभाव वाली इन्द्रियां, रात दिन प्रयत्न करने वाले बुद्धिमान साधक के मन को अपने प्रभाव से बल पूर्वक हर लेती है अर्थात यत्नशील बुद्धिमान पुरुष भी इन्द्रियों के वेग के सामने लाचार हो जाता है।

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। यदि किसी एक इन्द्रिय विषय का थोड़ा भी चिन्तन हो तो निरन्तर अभ्यासी पुरुष भी उस विषय की ओर बहने लगता है। सकामी पुरुषों की अनेक इच्छायें और उनकी आसक्ति से उत्पन्न संवेग का अनुमान लगाया जा सकता है। आसक्ति से काम उत्पन्न होता है, कामना पूर्ति में यदि बाधा होती है तो क्रोध उत्पन्न होता है। अग्नि के समान सदैव असंतुष्ट यह काम क्रोध का कारण है.

जिस प्रकार धुएं से अग्नि ढकी रहती है तथा दर्पण मैले से ढक जाता है, जेर से गर्भ ढका रहता है उसी प्रकार विवेक हमेशा काम-क्रोध से ढका रहता है।

रजोगुण सदा जीव को बहलाता है क्योंकि राग रूप रजोगुण का जन्म कामना और आसक्ति से होता है और संसार के विभिन्न रूपों की कामना उनमें आसक्ति प्राप्त होने पर बढ़ती ही जाती है।

तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है, यह विवेक को पूर्ण रूपेण भ्रम में डाल देता है, इनके द्वारा मन मूढ़ बन जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है

उपर्युक्त परिणामों से सुस्पष्ट है कि अहँकार, क्रोध का वास्तविक कारण नहीं हैं,न इसे समाप्त किया जा सकता है क्योंकि रजोगुण क्रोध के जन्म के लिए उत्तरदायी है. इसकी केवल दिशा बदली जा सकती है. सत्वगुण की वृद्धि करके अथवा विवेक द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है.


Thursday, 20 October 2011

क्लैव्यता- गीता ज्ञान –प्रो बसन्त


क्लैव्यता से कायरता रूपी दोष उत्पन्न हो जाता है, धर्म के विषय में बुद्धि भ्रमित हो जाती है। इससे व्यक्ति अपार विषाद को प्राप्त हो जाता है. किमकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है.

क्लैव्यता असमय में मोह को जन्म देती है यह किसी भी कारण से व्याप्त हो जाती है इस के कारण मोह जनित होकर कर्तव्य कर्म को छोड़ना न तो श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण है और न यश को बढ़ाने वाला है।

क्लैव्यता (एक प्रकार की दिमागी नपुंसकता) है। इसको प्राप्त होना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह हृदय की तुच्छ दुर्बलता है.इसको त्यागकर जीवन संग्राम के लिए खड़ा होना उचित है।

भगवदगीता का प्रथम अध्याय अर्जुन की क्लैव्यता के कारण प्राप्त विषाद के कारण विषादयोग कहा जाता है. अर्जुन भाग्यवान थे कि योगभ्रष्ट  होने के कारण उन्हें श्री कृष्ण का सानिध्य मिला.

महाभारत युद्ध  के प्रारंभ में अर्जुन की क्लैव्यता  के कारण प्राप्त दशा -

अर्जुन अपने युद्ध प्रिय बन्धुओं को युद्ध के लिए तत्पर देखकर अत्यन्त करूणा से युक्त होकर श्री कृष्ण चन्द्र महाराज से इस प्रकार बोला। हे कृष्ण, हे गोविन्द, अपने बन्धुओं को देखकर मेरे हाथ पांव ढीले हो रहे हैं और घबराहट के मारे मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में रोमांच और कम्पन हो रहा है।

मेरे हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और मेरी त्वचा अग्नि के समान ताप से जल रही है। मेरी बुद्धि, मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़े रहने में समर्थ नहीं हूँ।

हे केशव, मैं अपने लक्षणों को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में अपने बन्धु बान्धवों को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।

हे श्री कृष्ण, मैं अपने बन्धुओं को मारकर न तो विजय चाहता हूँ न राज्य सुख चाहता हूँ। स्वजनों को मारकर इस राज्य का हम क्या करेंगे, क्या जीवन ही हमारा उद्देश्य होगा, क्या हम भोग,भोग पायेंगे?

हे श्री कृष्ण, मैं अपने बन्धुओं को मारकर न तो विजय चाहता हूँ न राज्य सुख चाहता हूँ। स्वजनों को मारकर इस राज्य का हम क्या करेंगे, क्या जीवन ही हमारा उद्देश्य होगा, क्या हम भोग,भोग पायेंगे?

ये बन्धुगण हमारे गुरूजन हैं ताऊ, चाचा, लड़के, पितामह, मामा, ससुर, साले, पौत्र और सभी निकट के सम्बन्धी लोग हैं। हे मधुसूदन, इन निकट के बन्धुओं को मैं तीन लोकों के राज्य के लिए भी नहीं मारना चाहूँगा फिर पृथ्वी की तो बात ही क्या है।

हे श्री कृष्ण इन कौरवों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी, इन्हें मारकर हमें केवल पाप ही लगेगा।

हे भगवन, अपने बन्धुओं बान्धवों तथा अपने भाई कौरवों को मारने के लिए मैं समझता हूँ कि हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने कुटुम्ब को मारकर कैसे सुखी हो सकता है।

यद्यपि इन कौरवों की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है और भ्रष्ट बुद्धि के कारण कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्र द्रोह के पाप को यह लोग समझ नहीं पा रहे हैं परन्तु हे जगदीश्वर, क्या हम भी कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोष के बारे में न सोचें? क्या इस पाप से हटने का विचार हमें नहीं करना चाहिए?
यह बहुत ही शोक और दुःख की बात है कि हम लोग महान पाप करने को तैयार हो गये हैं और राज्य एवं सुख के लोभ से वशीभूत होकर अपने बन्धु बान्धवों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं।

हे श्री कृष्ण, अतः मैं समझता हूँ कि युद्ध करना बेकार है और यदि मुझ शस्त्र रहित और युद्ध में सामना न करने वाले की कौरव हत्या कर दें तो भी मरना मेरे लिए परम कल्याण कारक होगा।

अनेक  मनुष्यों के जीवन में ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो जाती है जब क्लैव्यता उनको घेर लेती है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है। इससे व्यक्ति अपार विषाद को प्राप्त हो जाता है. किमकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है. मोह जनित होकर कर्तव्य कर्म को छोड़ना चाहता है जैसा अर्जुन ने किया. अतः भगवदगीता के सन्देश को ध्यान में रखते हुए मनुष्य  अपार विषाद अथवा क्लैव्यता से उबर सकता है.