Thursday, 20 October 2011

क्लैव्यता- गीता ज्ञान –प्रो बसन्त


क्लैव्यता से कायरता रूपी दोष उत्पन्न हो जाता है, धर्म के विषय में बुद्धि भ्रमित हो जाती है। इससे व्यक्ति अपार विषाद को प्राप्त हो जाता है. किमकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है.

क्लैव्यता असमय में मोह को जन्म देती है यह किसी भी कारण से व्याप्त हो जाती है इस के कारण मोह जनित होकर कर्तव्य कर्म को छोड़ना न तो श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण है और न यश को बढ़ाने वाला है।

क्लैव्यता (एक प्रकार की दिमागी नपुंसकता) है। इसको प्राप्त होना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह हृदय की तुच्छ दुर्बलता है.इसको त्यागकर जीवन संग्राम के लिए खड़ा होना उचित है।

भगवदगीता का प्रथम अध्याय अर्जुन की क्लैव्यता के कारण प्राप्त विषाद के कारण विषादयोग कहा जाता है. अर्जुन भाग्यवान थे कि योगभ्रष्ट  होने के कारण उन्हें श्री कृष्ण का सानिध्य मिला.

महाभारत युद्ध  के प्रारंभ में अर्जुन की क्लैव्यता  के कारण प्राप्त दशा -

अर्जुन अपने युद्ध प्रिय बन्धुओं को युद्ध के लिए तत्पर देखकर अत्यन्त करूणा से युक्त होकर श्री कृष्ण चन्द्र महाराज से इस प्रकार बोला। हे कृष्ण, हे गोविन्द, अपने बन्धुओं को देखकर मेरे हाथ पांव ढीले हो रहे हैं और घबराहट के मारे मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में रोमांच और कम्पन हो रहा है।

मेरे हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और मेरी त्वचा अग्नि के समान ताप से जल रही है। मेरी बुद्धि, मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़े रहने में समर्थ नहीं हूँ।

हे केशव, मैं अपने लक्षणों को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में अपने बन्धु बान्धवों को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।

हे श्री कृष्ण, मैं अपने बन्धुओं को मारकर न तो विजय चाहता हूँ न राज्य सुख चाहता हूँ। स्वजनों को मारकर इस राज्य का हम क्या करेंगे, क्या जीवन ही हमारा उद्देश्य होगा, क्या हम भोग,भोग पायेंगे?

हे श्री कृष्ण, मैं अपने बन्धुओं को मारकर न तो विजय चाहता हूँ न राज्य सुख चाहता हूँ। स्वजनों को मारकर इस राज्य का हम क्या करेंगे, क्या जीवन ही हमारा उद्देश्य होगा, क्या हम भोग,भोग पायेंगे?

ये बन्धुगण हमारे गुरूजन हैं ताऊ, चाचा, लड़के, पितामह, मामा, ससुर, साले, पौत्र और सभी निकट के सम्बन्धी लोग हैं। हे मधुसूदन, इन निकट के बन्धुओं को मैं तीन लोकों के राज्य के लिए भी नहीं मारना चाहूँगा फिर पृथ्वी की तो बात ही क्या है।

हे श्री कृष्ण इन कौरवों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी, इन्हें मारकर हमें केवल पाप ही लगेगा।

हे भगवन, अपने बन्धुओं बान्धवों तथा अपने भाई कौरवों को मारने के लिए मैं समझता हूँ कि हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने कुटुम्ब को मारकर कैसे सुखी हो सकता है।

यद्यपि इन कौरवों की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है और भ्रष्ट बुद्धि के कारण कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्र द्रोह के पाप को यह लोग समझ नहीं पा रहे हैं परन्तु हे जगदीश्वर, क्या हम भी कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोष के बारे में न सोचें? क्या इस पाप से हटने का विचार हमें नहीं करना चाहिए?
यह बहुत ही शोक और दुःख की बात है कि हम लोग महान पाप करने को तैयार हो गये हैं और राज्य एवं सुख के लोभ से वशीभूत होकर अपने बन्धु बान्धवों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं।

हे श्री कृष्ण, अतः मैं समझता हूँ कि युद्ध करना बेकार है और यदि मुझ शस्त्र रहित और युद्ध में सामना न करने वाले की कौरव हत्या कर दें तो भी मरना मेरे लिए परम कल्याण कारक होगा।

अनेक  मनुष्यों के जीवन में ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो जाती है जब क्लैव्यता उनको घेर लेती है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है। इससे व्यक्ति अपार विषाद को प्राप्त हो जाता है. किमकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है. मोह जनित होकर कर्तव्य कर्म को छोड़ना चाहता है जैसा अर्जुन ने किया. अतः भगवदगीता के सन्देश को ध्यान में रखते हुए मनुष्य  अपार विषाद अथवा क्लैव्यता से उबर सकता है.




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