भगवदगीता और आत्मा - सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है
पार्थ सूर्य ब्रह्माण्ड को, ज्योर्तिमय कर देत
वैसे ही यह आत्मा, क्षेत्र ज्योति भर देत ।। 33-13।।
जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है, जीवन है आदि उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है।
यह आत्मा सदा नाश रहित है ।
आत्मा ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है।
सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व न हो।
इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
जीवात्मा इस देह में आत्मा का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है।
इस जीवात्मा के देह मरते रहते हैं।
जब देह मरता है तो समझा जाता है सब कुछ नष्ट हो गया परन्तु ऐसा नहीं होता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, जो इसे मारने वाला और मरणधर्मा मानता है, वह दोनों नहीं जानते हैं।
यह आत्मा न किसी को मारता है, न मरता है।
आत्मा अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अतः किसी को नहीं मारता ।
आत्मा नित्य अविनाशी है
आत्मा किसी भी काल में नहीं मरता है।
इस आत्मा का न जन्म है न मरण है।
यह आत्मा न जन्म लेता है न किसी को जन्म देता है।
आत्मा हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है ।
इसे कोई नहीं मार सकता ।
केवल इसके देह नष्ट होते हैं ।
आत्मा को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है.
जीवात्मा के शरीर उसके वस्त्र हैं, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा पुराने शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है.
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं.
आत्मा को आग में जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा को जल गीला नहीं कर सकता.
आत्मा को वायु सुखा नहीं सकती।
आत्मा निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है।
आत्मा को छेदा नहीं जा सकता.
आत्मा को जलाया नहीं जा सकता.
आत्मा को गीला नहीं किया जा सकता.
आत्मा को सुखाया नहीं जा सकता.
यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है।
यह आत्मा व्यक्त नहीं किया जा सकता है.
आत्मा अनुभूति का विषय है।
आत्मा का चिन्तन नहीं किया जा सकता. आत्मा बुद्धि से परे है।
आत्मा विकार रहित है.
आत्मा सदा अक्रिय है।
इस देह में आत्मा क्रियाशील और मरता जन्म लेता दिखायी देता है.
आत्मतत्त्व एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह सब कुछ करता दिखायी देता है।
आत्मा निराकार है,
आत्मा अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए दिखायी देता है।
आत्मा इस देह में अवध्य है.
आत्मा को कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता.
आत्मा मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है।
आत्मा ही विश्वात्मा है.इस शरीर में आत्मा ही अधिदैव और अधियज्ञ दोनों रूप से प्रतिष्ठित हैं। अधिदैव के रूप में वह कर्ता भोक्ता है तो अधियज्ञ के रूप में दृष्टा है ।
आत्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है.
आत्म शक्ति से ही यह सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है श्री ब्रह्मा और श्री हरि विष्णु आत्म शक्ति से ही उत्पत्ति एवं जगत पालन का कार्य करते हैं।
आत्मा ही इस सृष्टि का आदि अन्त और मध्य है अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा से ही जन्मती है, आत्मा में ही स्थित रहती है और आत्मा में ही ही लय हो जाती है। आत्मा ही सृष्टि का बीज है और सृष्टि का विस्तार भी आत्मा ही है और यह जगत आत्मा का ही रूप है।
आत्मा की ज्ञान शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती है। उससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैं। आत्मा सदा अकर्ता अक्रिय है।
सृष्टि का मूल तत्व आत्मतत्व है वही सत् है, वही नित्य है, सदा है। असत् जिसे जड़ या माया कहते हैं, यह वास्तव में है ही नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं। ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न दृष्टा रहता है न दृश्य। केवल आत्मतत्व जो नित्य है, सत्य है, सदा है, वही रहता है।
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