Saturday, 19 November 2011

गीता का कर्म विज्ञान-प्रो. बसन्त


                     कर्म का विज्ञान  

अच्छा  जीवित शरीर अपने  उत्तम इन्द्रिय ज्ञान  के साथ अपने अंगों का उत्तम  प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम देता है.

भगवदगीता में आत्मा के अकर्ता धर्म को समझाने की दृष्टि से  कर्म का विज्ञान बताते हुए श्री भगवान कहते हैं-

कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार
विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।

हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जानअधिष्ठान ही जीव की देह हैइस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता हैप्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव हैजीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता हैतीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित होंज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएंपांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल होसभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता हैइन हेतुओं से कर्म की रचना होती है

कोई भी कर्म होने के लिए 05 हेतु आवश्यक है.
1-शरीर
2-जीवात्मा
3-इन्द्रियाँ
4-चेष्टा
5- दैव- अनुकूलता
बिना शरीर के कर्म नहीं हो सकता.
मृत शरीर से  कर्म नहीं हो सकता.
इन्द्रिय ज्ञान  के बिना कर्म नहीं हो सकता.जैसे दृश्य ज्ञान  के बिना आँखों के देखा नहीं जा सकता. श्रवण ज्ञान   के बिना सुना नहीं जा सकता.
कर्मेन्द्रियों की कार्य प्रणाली ठीक  होनी चाहिए.
परिस्थितियां इन्द्रियां, चित्त भी अनुकूल होने चाहिए इसे दैव कहा है.

जन साधरण और प्रबंधन की दृष्टि से इन नियमों को लागू कर उत्तम परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं. अच्छा  जीवित शरीर अपने  उत्तम इन्द्रिय ज्ञान  के साथ अपने अंगों का उत्तम  प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम दे सकता है.अतः
1-    शरीर रक्षा आवश्यक है.
2-    शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है.
3-    स्वस्थ चिन्तन आवश्यक है.
4-    दिमाग और इन्द्रियाँ पुष्ट होनी आवश्यक है.
5-    अनुकूल परिस्थिति का इंतजार करना  आवश्यक है अथवा परिस्थिति अनुकूल करने के लिए प्रयास रत होना चाहिए.


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