Wednesday, 16 November 2011

भगवदगीता और वेद - यह कह देना कि भगवदगीता वेद निंदक है घोर पाप है. शान्तम् पापम्-Prof Joshi Basant


                 भगवदगीता और वेद

आजकल कुछ लेखक विषय वस्तु को जाने बिना भगवदगीता को वेद विरोधी कह डालते हैं. कृत्रिम वाणी से केवल अविवेक ही समाज को दे रहे हैं. कोई बात क्यों कही गयी इस बात को जाने बिना यह कह  देना भगवदगीता वेद निंदक है घोर पाप है. शान्तम् पापम्. भगवदगीता आत्मतत्त्व शोध केंद्रित ग्रन्थ शास्त्र है और यह तत्त्व आत्म तत्त्व के जिज्ञांसु साधक और आत्म  ज्ञानियों के लिए है. यही नहीं वेदान्त के समस्त आत्मज्ञान को श्री भगवान द्वारा पुनः क्रम बद्ध तरीके से भगवदगीता में अर्जुन को दिया है.

जनसामान्य के लिए भगवदगीता में श्री भगवान स्वधर्म पालन का उपदेश देते हैं. स्वाभविक कर्म को श्रेयष्कर बताते हैं. अर्जुन जैसे योगी को भी उसके स्वाभविक क्षत्रिय धर्म की ओर प्रेरित करते हुए आत्मज्ञान का उपदेश देते हैं. श्री भगवान ने आत्मज्ञानी के लिए भी यह निर्देश दिया है कि उसे भी अनासक्त रहते  हुए संसार में दिखावे के लिए सामान्य व्यक्ति की तरह कर्म करने चाहिए.

हे भारत, आसक्त जन, रहे कर्म में लीन
अनासक्त विद्वान जन, करे लोक में कर्म।। 25-3।।

फल की इच्छा रखने वाले अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार कर्म करते हैं अनासक्त ज्ञानी पुरुष को भी लोक कल्याण को देखते हुए सकाम पुरुष की तरह कर्म करना चाहिए।

आत्म ज्ञान के इच्छुक मनुष्य के लिए भोग और स्वर्ग हेतु देव पूजन और सकामकर्म का कोई स्थान नहीं है. इसलिए वेद के प्रारंभ और मध्य वेद के विषय में आत्मतत्त्व के अभिलाषी, भगवद प्रेमी ब्राह्मी स्थिति के इच्छुक निष्काम कर्म योगी के लिए भगवान कहते हैं.

अविवेकी भासित करे, कृत्रिम वाणी पार्थ
वेद वाद में रम रहे, नहीं अन्य कोई वस्तु ।। 42-2।।

परम स्वर्ग है, भोग रत, जन्म कर्म फल प्राप्त
भोग ऐश्वर्य प्राप्ति का नाना विधि विस्तार।। 43-2।।
जिनका चित चंचल हुआ, भोग ऐश्वर्य आसक्त
जान परम में निश्चित धी का, होता सदा अभाव।। 44-2।।

श्री भगवान अर्जुन से बोले जो मनुष्य सदा भोगों में लगे रहते हैं जिन्हें नित नवीन भोग चाहिए, जो कर्मफल के प्रशसंक हैं और विभिन्न भोगों के लिए वेदों के बताये हुए मार्ग में चलते हैं, उनके लिए स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उनकी बुद्धि यहाँ भी भोगों में रत रहती है और मरने के बाद भी उन्हें स्वर्ग आदि के भोग चाहिए। ऐसे अविवेकी जन भोगों की प्राप्ति के लिए मीठी मीठी वाणी का प्रयोग करते हैं और ऐसी विद्या और वाणी से जिनकी बुद्धि का हरण हो गया है वह भोग ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाली, संसार बन्धन में बांधने वाली विद्या को सबसे श्रेष्ठ मानते हुए भोग ऐश्वर्य के लिए बताई वेद वाणी में आसक्त पुरुषों की बुद्धि आत्म ज्ञान की ओर नहीं होती। वह आत्मतत्व परमात्मा को नहीं जान पाते।

त्रिगुण विषय वेद तजि, द्वन्द्व रहित हो आत्मवान
निर्योग क्षेम स्वीकार कर, परम सत्य चित आप ।। 45-2।।

वेदों में अधिकांशतः कर्म काण्ड का प्रतिपादन हुआ है अतः वेद का विषय सत्त्व, रज, तम से युक्त है। परन्तु हे अर्जुन तूने वेद विषय में ध्यान नहीं देना है। तुझे स्वाधीन अन्तः करण होकर कर्म फल को न चाहने वाला, नित्य आत्मा में स्थित होना है। कर्म काण्ड आसक्ति योग का प्रतिपादन करते हैं, जबकि तुझे अनासक्त होना है।

ताल तलैया लघु अर्थ हों, पाकर सिन्धु अपार
पाकर बोध पर ब्रह्म का, वेद बूँद हो जाय।। 46-2।।

अपार जलराशि के प्राप्त होने पर ताल तलैया का प्रयोजन सीमित हो जाता है उसी प्रकार जो विद्वान आत्मतत्व को जान लेते हैं उनका वेदों में प्रयोजन सीमित हो जाता है।

संसार के अधिकांश धर्म स्वर्ग, फल और भोग हेतु देव अथवा ईश्वर पूजन का विधान बताते हैं इन्हें सकाम कर्म कहा है वेद के प्रारंभ और मध्य भाग में वेद भी स्वर्ग, फल और भोग हेतु विधान अथवा कर्मकान्ड को प्रमुखता देते हैं. कठोपनिषद में इसे अग्नि विद्या कहा है. भगवद्गीता में भी जन सामान्य के लिए उपदेश है-

उन्नत होंगे देवगण, तुम उन्नत हो जाव
प्रति उन्नत करते हुए, परम श्रेय को पाव।। 11-3 ।।

स्वधर्म पालन स्वभाव में रहते हुए करते हुए तुम समस्त देवताओं का पूजन करो। गुरूदेव, मातृदेव, पितृदेव, अतिथि देव, का पूजन करो और वह सभी देव तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण को प्राप्त हो।

जो संसार और स्वर्ग की कामना छोड़ दे आत्म तत्त्व का ज्ञान उस महत्मा के लिए है. आत्मतत्त्व अपार जलराशि के सामान है और ईश्वर की सकाम पूजा ताल तलैया के सामान है इसलिए जो विद्वान आत्मतत्व को जान लेते हैं उनका वेदों में प्रयोजन सीमित हो जाता है।
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