Wednesday, 2 November 2011

भगवद गीता -क्या कोई किसी का भाग्य बदल सकता है?-प्रो बसन्त


    
रामकृष्ण परमहंस ने अपने  शिष्य  नरेन्द्र को  पांव के अंगूठे से छुआ और नरेंद्र विवेकानंद हो गए.मैं यह नहीं कहता कि यह घटना असत्य है पर क्या कोई विवेकानंद इस प्रकार बन सकता है?इससे तो ईश्वर के  कर्म का सिद्धांत असत्य हो जायेगा.सन्त महात्माओं के साथ किसी न किसी के भाग्य की घटना क्रम की कहानी जुड़ी होती है. पर क्या सत्य है? यह प्रश्न विचारणीय  है. एक प्रश्न यह भी उठता  है इस प्रकार उनके अन्य शिष्य विवेकानंद क्यों नहीं हो गए?
विवेकानंद के विषय में रामकृष्ण कहा करते थे वह पुरातन सिद्ध ऋषि है.उसके लिए वह व्याकुल हो जाते थे. अतः अंगूठा लगाना और इस प्रकार विवेकानंद को आत्मबोध होना मात्र कर्मबंधन था. होनी अवश्यम्भावी है शेष खेल है चाहे सन्त खेले अथवा सामान्य मनुष्य.
ईसा ने अंधे को आंखे दी,कुष्ठ रोगी का रोग दूर किया,यह उन व्यक्तियों के कर्म फल थे जो वह भोग रहे थे और ईसा के दर्शन भी उनके  किसी शुभ कर्मों का परिणाम था और उसका फल वह भले चंगे हो गए.

आपको एक कथा सुनाता हूँ
नर नारायण नाम के दो भाई थे। यह दोनों राजा धर्म के पुत्र थे और परम शिव भक्त थे  इन दोनों ने हिमालय बद्रिकाश्रम के निकट कठिन तपस्या की। नारायण को परम बोध  प्राप्त हुआ परन्तु नर जीव ही रहा. कालांतर में नारायण श्रीकृष्ण और नर अर्जुन हुए ।

यह बड़ी अद्भुत कथा है. विचार कीजिये नर नारायण दोनों सगे भाई थे. दोनों में अति प्रेम था. दोनों ने एक साथ कठिन तपस्या की परन्तु निष्काम कर्म साधना के परिणाम स्वरूप केवल नारायण ही आत्मबोध को उपलब्ध हुए.यही नहीं अनेक जन्मों के बाद भी दूसरा भाई नर, जीव ही रहा और अर्जुन के रूप में जन्म लिया.
स्वयं ईश्वर ने अपने भाई अपने प्रेमी और साथ के साधक का भाग्य नहीं बदला उसे अपनी शक्ति से आत्म बोध नहीं कराया.क्योंकि ईश्वर किसी भी जीव के पाप और पुण्य नहीं लेते हैं. ईश्वर का विधान अटल है, निश्चित है. उनका न कोई अपना है न पराया. वह सब के लिए समान हैं.

भगवद्गीता में श्री भगवान ने अनेक स्थानों में
इसी बात का संकेत दिया है कि कोई किसी का भाग्य बदल नहीं  सकता है और ईश्वर न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करते  हैं।

तेरे मेरे जन्म बहु, हुए अनेकों बार
मैं जानू सब जन्म को, तू नहिं जाने हाल।। 5-4।।

श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

कर्म फल इच्छा नहीं है, कर्म मुझमें लिप्त नहिं
तत्व मेरा जानता जो, कर्म में बंधता नहीं।। 14-4।।

यह संसार भेद यद्यपि मेरी सत्ता द्वारा हुआ है, परन्तु मेरे (आत्मा) द्वारा नहीं किया गया है क्योंकि कर्मो में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो आत्मतत्व (मुझे) को जान लेता है वह कर्मो में नहीं बंधता है।

कल्प आदि विधि ने रचा, यज्ञ सहित भू लोक
यज्ञ करें कल्याण को, पूर्ण कामना होय।। 10 -5।।
प्रभु नहिं रचें, वरते प्रकृति, कर्तापन का भाव
यही नियम है कर्म का, यही कर्म फल संयोग।। 14-5।।

परमेश्वर वास्तव में अकर्ता है, वह संसार के जीवों के न कर्तापन की, न कर्मों की, न कर्म फल संयोग की रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही इस सबका कारण है अर्थात माया का आरोपण जब ईश्वर में कर दिया जाता है तो उसे कर्ता समझने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपने अकर्ता स्वरूप में स्थित रहते हुए कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देते हैं। यह सब उनकी प्रकृति के कारण होता है। मनुष्य में भी प्रकृति (स्वभाव) उसके कर्तापन, कर्म और कर्मफल संयोग का कारण है.

प्रभु नहिं लेते जीव के, पुण्य पाप मय कर्म
ज्ञान ढका अज्ञान से, मोहित हैं जड़ जन्तु।। 15-5।।

परमात्मा न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करता है। पाप और पुण्य जीवत्व भाव अथवा शरीर भाव के कारण उत्पन्न होते हैं। परमात्मा नित्य शुद्ध  आत्मतत्व है, निराकार है अतः पाप पुण्य से उसका कोई वास्ता नहीं है। अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है; ब्रह्म माया से छिपा हुआ है, आत्मा अनात्म तत्वों से ढकी हुयी है, इस कारण जीव अपने स्वरूप को नहीं पहचान पाता और वह मोहित हो रहा है।

श्री भगवान, कर्म कैसे और क्यों होता है इसे भी बताते हैं.

ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय है, जिससे होता कर्म
कार्य करण क्रिया मिले उपजे संग्रह कर्म।। 18=18।।

ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है। ज्ञाता जो जानता है अर्थात जीव ज्ञाता है, ज्ञान जिसके द्वारा जाना जाये, ज्ञेय वस्तु अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा जानने में आने वाली वस्तु। जीव शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की ओर दौड़ता है। कर्ता, करण, क्रिया यह तीन कर्म के अंग हैं। किसी कार्य को किया जाय अथवा नहीं; जब ज्ञाता इन्द्रियों द्वारा उस ओर बढ़ता है तो कर्ता कहलाता है। जब इन्द्रियों से औजार की तरह काम लेता है तो करण। इन्द्रियों के लिए कर्ता, जो क्रिया उत्पन्न करता है वह कर्म जैसे चलना, बोलना आदि।

भगवद्गीता  के अन्त में श्री भगवान  अर्जुन से पूछते हैं

श्रवण किया एकाग्र मन, परम ज्ञान को पार्थ
हुआ धनंजय नष्ट क्या, तामस जन्य सम्मोह।। 72-18 ।।

हे अर्जुन, इस धर्म उपदेश को तूने क्या एकाग्र चित्त होकर सुना क्या तेरी मूढ़ता, अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया, क्या तेरी क्लैव्यता समाप्त हो गयी क्या तू स्वरूप स्थिति को समझ गया है क्या तेरा जीव भाव समाप्त हो गया है, क्या तू ब्रह्म भाव में स्थित हो गया है?
अब देखिये भगवद्गीता  के अन्त और उसके बाद भी अर्जुन जीव ही रहा.कर्मानुसार उनको श्री भगवान  का साथ मिला.

कर्म का सिद्धांत बताता है जो कुछ भी आपको इस संसार में मिलता है वह आपके शुभ और अशुभ  कर्मों का परिणाम है और जो आप वर्तमान और इस जीवन में कर रहे हैं उससे आपका  भविष्य और अगला जीवन निश्चित होगा. यदि और सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो जैसी आपकी प्रकृति होगी वैसे आपके कर्म होंगे.
इसी प्रकृति के कारण आप धार्मिक होते हैं, सन्त दर्शन करते हैं, कृपा भी प्राप्त करते हैं पर यह सब अपरोक्ष रूप से आपके कर्मों का परिणाम है. जैसी जस भवितव्यता तैसी मिली सहाय और भाग्य का निर्माण आपके कर्म करंगे. कर्म प्रधान विश्व रचि राखा. इसलिए
1- सदा स्वाभाविक कर्म करें.
2-शास्त्र सामत कर्म करें अथवा महापुरुषों का आचरण करें.
3-सभी कर्म अथवा कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर दें.
4-जागते हुए( दृष्टा भाव से ) कर्म करें.
5-निष्काम कर्म केवल अनेक जन्मों का योगभ्रष्ट पुरुष,  कोई विरला साधक ही कर सकता है.उस ओर प्रयासरत हों.

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